Wednesday 21 October 2015

साठ सालों के विकास का सफ़र : क्या खोया, क्या पाया ?

शायद वृद्धावस्था में दिमाग खाली रहने के कारण भूत और वर्तमान के बीच भटकता रहता है. यही कारण है कि विगत दिनों से कई बार जीवन काल में आये बदलावों पर मन भटकता रहता है. बचपन से आज तक सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक मूल्यों में बदलाव के साथ विकास का यह 60 सालों का सफ़र कितना कुछ अपने साथ लाया व कितना कुछ अपने साथ ले गया, इस पर प्राय: मन भटकता रहता है. 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिछले सात दशकों में भारत ने प्रशंसनीय प्रगति की है. शिक्षा, सुख-सुविधा के साधन, उपचार की उपलब्धता, कमाने के अवसर, संचार माध्यम तथा मनोरंजन के साधनों का तेजी से विस्तार एक बहुत बड़ी उपलब्धि है. 

लोगों के आर्थिक विकास और क्रय शक्ति में वृद्धि से आज भारत विकासशील देशों में अग्रिम पंक्ति में खड़ा है. आने वाले बीस से पच्चीस वर्षों में भविष्य का अध्ययन करने वाले विद्वान भारत को जापान व अमेरिका से सम्पन्नता में आगे निकल जाने की भविष्यवाणी करने लगे हैं. सभी भारतीयों को देश की इस उपलब्धि पर गर्व महसूस होना चाहिए. 

किन्तु विकास के इस सफ़र में हमने क्या खोया है ? इस पर लोगों का ध्यान शायद बहुत कम ही जाता है. मेरे अनुसार सबसे महत्वपूर्ण पांच मनुष्यता के आधार मूल्य जो हमने इस विकास यात्रा में गवाएं हैं, वे इस उपलब्धि को बौना बनाने के लिए पर्याप्त हैं. 

1. संतोष : हमारे मनीषीयों ने संतोष को परम धन की संज्ञा दी है. किन्तु प्रबंधन विशेषज्ञों ने प्रगति के लिए इसे बाधक बतलाकर लोगों को भौतिकवाद की ओर इस प्रकार दौड़ने के लिए मजबूर कर दिया कि इतना कुछ पा लेने के पश्चात् भी और पाने की लालसा खत्म ही नहीं होती. इस अतृप्त लालसा का ही परिणाम है कि लोगों का सुख चैन गायब हो गया है. पहले जहाँ एक सब्जी रोटी खाकर मन तृप्त हो जाता था, आज कुछ भी खाने से पहले यह सोचना पड़ता है कि इसका सेहत पर क्या असर होगा. अधिक कमाने के फेर में आज लोग मिलावट, बेईमानी, लूट, धोखेबाजी, भ्रष्टाचार आदि को जायज मानने लगे हैं. वैसे देखा जाए तो हम बाजारवाद के मायाजाल में जकड़ दिए गए हैं. परिणाम स्वरुप अधिकतर लोग मानसिक तनाव से जनित बीमारियों जैसे रक्तचाप व मधुमेह से जूझ रहे हैं. संक्षेप में कहा जाए तो हम आज पहले की अपेक्षा अधिक गरीब ही हुये हैं, क्योंकि आज हम पैसों की भूख ज्यादा महसूस करते हैं. 

2. समाज : मनुष्य खुद को सामाजिक प्राणी मानकर गर्व महसूस करता है. सामाजिक होने का मतलब समाज के अन्य लोगों के प्रति संवेदनशील होना है. मुझे अच्छी तरह याद है कि बचपन में पूरा मोहल्ला एक परिवार की तरह रहता था. सभी परिवारों में एक पारदर्शिता व अपनापन था. हम बच्चे लोग आसपास के सभी लोगों को भैया, दीदी, काकाजी, ताईजी आदि संबोधनों से ना सिर्फ बुलाते थे बल्कि मान भी देते थे. हम बच्चों से कभी कोई गलती हो जाती थी तो मोहल्ले का कोई भी बड़ा व्यक्ति अधिकार से डांट देता था. डांट में छुपे स्नेह के कारण बुरा मानने का तो सवाल ही पैदा नहीं था. यह अपनापन सिर्फ मोहल्ले तक ही सीमित नहीं था बल्कि उस समय के सामाजिक बंधन का स्थानीय प्रतिरूप था. इस मजबूत सामाजिक बंधन का ही परिणाम था कि लोग गलत काम करने से डरते थे. अपनी समस्या को बांटने के लिए कई विकल्प थे इसलिए मानसिक तनाव जनित बीमारी कभी सुनने में नहीं आती थी. बढ़ते भोगवाद व सीमित परिवार की सोच ने इस सामजिक बंधन को आज इतना कमजोर कर दिया है कि बाहरी व्यक्ति तो दूर घर के किसी बड़े व्यक्ति को भी आज किसी को टोकने में डर लगता है कि बुरा ना मान जाए. सामाजिक बंधन के कमजोर होने के साथ ही लोगों के व्यवहार में आज एक स्वच्छंदता व उच्श्रंखलता दिखाई देती है. निंदनीय कार्य व दुष्कर्म भी आज लोग नि:सहाय से देखकर चुप रह जाते हैं. 

3. सच्चाई : हमारे मनीषीयों ने सच्चाई को सबसे अधिक महत्त्व दिया है. सीधे शब्दों में सच्चाई अंतरात्मा की आवाज़ है. सच्चाई का पालन करने वाले सरल ह्रदय लोग होते हैं. आजकल हर कोई एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा में लगा हुआ है, चाहे वह बच्चों की शिक्षा हो, सुख-सुविधा के साधन जुटाने की बात हो अथवा धन कमाने की दौड़. इस प्रतियोगिता में हर कोई सिर्फ आगे निकलना चाहता है. इस चाह में अंतरात्मा को कुचल डाला है. लोग दूसरों से आगे निकलने के लिए कुछ भी कर सकते हैं. विकास की इस चाहत ने समाज में एक ऐसी बीमारी फैला दी है, जिसका इलाज फ़िलहाल किसी के पास नहीं है. 

4. सम्मान : बड़ों व अथितियों का सम्मान करना हमारी संस्कृति का एक गौरवशाली अंग रहा है. बचपन से ही बच्चों को सवेरे उठकर घर में बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेना सिखाया जाता था. आशीर्वाद लेते समय पूरा झुककर पैरों को छूना पड़ता था. यह एक प्रकार के व्यायाम से कम नहीं था. साथ ही बड़े लोग जो सहज भाव से आशीष वचन बोलते थे वे मनोबल को बढ़ाने वाले होते थे. प्यार व सम्मान की यही डोर परिवार व समाज को बांधे रखती थी. बिखरते परिवार व जीवन की व्यस्तता ने इस परंपरा को लगभग समाप्त ही कर दिया है. ऐसा नहीं है कि बच्चे आजकल बड़ों के पैर नहीं छूते हैं. लेकिन झुकने में कष्ट अधिक सम्मान कम झलकता है. यह प्रथा आज सिर्फ एक दिखावा बनकर रह गयी है वह भी सिर्फ गिनेचुने लोगों तक सीमित. अथिति तो आजकल पहले से सूचित करके ही आ सकते हैं. कई अवसरों पर बोझ समझकर झेल लिए जाते हैं व कई अवसरों पर बहाने बनाकर टाल दिए जाते हैं. अनजान व्यक्ति को तो आजकल घर में बैठाकर पानी पिलाने से भी डर लगता है. भरोसे की इस कमी ने समाज में एक बिखराव पैदा कर दिया है. जिसके दुष्परिणाम हम सभी जानते हैं. 

5. संवेदना : दूसरों के प्रति संवेदनशील होना एक स्वस्थ समाज की पहचान है. मुझे बचपन की बातें आज तक अच्छी तरह याद हैं. दया, ममता, स्नेह आदि भावनाओं को हमारे मनीषियों ने मानवता का अभिन्न अंग माना है. ऐसा नहीं है कि आज ये भावनाएं लोगों में नहीं है. हम आज भी लोगों में ये भावनाएं देख सकते हैं. किन्तु इनका दायरा प्राय: अपने परिवार, नजदीकी मित्रों और सम्बन्धियों तक ही सीमित रह गया है. इन भावनाओं को डर, अविश्वास, असुरक्षा और स्वार्थ ने काफ़ी हद तक दबा दिया है. किसी अपरिचित व्यक्ति की मुसीबत में सहायता करने से हम लोग सामान्यतः कतराने लगे हैं. शायद यही कारण है कि जो अपराध पहले रात में चोरी छिपे किये जाते थे, आजकल खुलेआम दिन-दहाड़े हो रहे हैं. 

मैं यह बिल्कुल नहीं कहना चाह रहा हूँ कि आजकल सब कुछ गलत हो रहा है. आज का युवा अधिक बुद्धिमान, सृजनशील, मेहनती व खुली मानसिकता वाला है. किन्तु वृहद परिप्रेक्ष्य में मानव मूल्यों में गिरावट साफ़ नज़र आती है. ऐसा भी नहीं है कि ये मूल्य लुप्तप्राय: ही हो गए हैं, किन्तु इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि पहले की अपेक्षा बहुत अल्प मात्रा में देखने को मिलते हैं. इस पर हमारे आर्थिक विकास का कितना योगदान है इस पर बहस की जा सकती है.

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